भूमिका – ‘नैणसी री ख्यात’ के अनुसार प्रताप का जन्म ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया वि.सं.1597 तद्नुसार 9 मई,1540 ई.को हुआ था। महाराणा उदयसिंह ने अपने जीवनकाल में ही अपने छोटे पुत्र जगमालसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, परन्तु महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के साथ ही उत्तराधिकारी-संघर्ष प्रारम्भ हो गया। कुछ सरदार जगमाल को सिंहासन पर बिठाना चाहते थे, जबकि अन्य सरदार प्रताप को सिंहासन पर बिठाना चाहते थे। अन्त में प्रताप के समर्थक सफल रहे और 28 फरवरी, 1572 ई. को गोगुन्दा में प्रताप का ज्याभिषेक सम्पन्न हुआ, उस समय प्रताप की उम्र 32 वर्ष की थी। महाराणा प्रताप के ज्याभिषेक से नाराज होकर जगमाल मुगल सम्राट अकबर की शरण में चला गया। अकबर ने जहाजपर का परगना जागीर में देकर उसे शाही सेना में मनसबदार बना दिया तथा 1581 ई. में उसे सिरोही का आधा राज्य भी प्रदान कर दिया। 1583 ई. में दताणी के युद्ध में जगमाल की मृत्यु हो गई।
अकबर के साथ प्रताप के सम्बन्ध
अकबर एक महान कूटनीतिज्ञ सम्राट था। उसने सम्पूर्ण राजपूत राजाओं को अपने अधीन बना लिया था। उसने स्थिति को भाँप कर महाराणा प्रताप को भी अपने अधीन करना चाहा। उधर महाराणा प्रताप की स्थिति भी अच्छी नहीं थी। दीर्घकालीन युद्धों के कारण मेवाड की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। चित्तौड़ के दुर्ग सहित मांडलगढ़,बदनौर,बागौर,जहाजपुर आदि परगनों पर मुगलों का अधिकार था। 1572 ई. तक जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर के राज्य मुगलों के आश्रित बन चुके थे। मेवाड़ का राज्य उत्तर, पूर्व और पश्चिम में मुगलों अथवा उसके आश्रितों द्वारा घिर चुका था।
मेवाड़ राज्य की केवल दक्षिणी और दक्षिणी-पूर्वी सीमा ही मुगल प्रभाव से मुक्त थी। 1567 ई. के मुगल आक्रमण के परिणामस्वरूप मेवाड़ के अनेक सरदार तथा हजारों शूरवीर सैनिक समाप्त हो चुके थे। इसके अलावा अकबर स्वतन्त्र मेवाड़ को अपने अधीन बनाने का हर सम्भव प्रयत्न कर रहा था। मेवाड़ की इस स्थिति में महाराणा प्रताप के सामने दो ही मार्ग थे
(1) अन्य राजपूत शासकों की भाँति अकबर की सर्वोच्चता स्वीकार करना – ऐसा करने से उसे मेवाड़ का सम्पूर्ण राज्य मिल सकता था और समूचे राज्य में सुव्यवस्था कायम हो सकती थी। आर्थिक समृद्धि की ओर बढ़ते हुए मुगल साम्राज्य के अन्य मनसबदारों की भाँति स्वतन्त्रता एवं सुविधाएँ प्राप्त की जा सकती थीं।
(2) दूसरा मार्ग था अपनी स्वतन्त्रता तथा सर्वोच्चता को बनाये रखना – परन्तु यह मार्ग सरल नहीं था और इसके परिणाम अधिक आशाजनक नहीं दिखाई पड़ रहे थे। इस मार्ग को अपनाने का अर्थ था मुगलों के साथ घातक और लम्बे संघर्ष का सामना करना।
इन दोनों मार्गों में महाराणा प्रताप ने दूसरा रास्ता चुना जो सिसोदिया वंश के गौरव एवं उसकी शानदार परम्परा के अनुकूल था। इस प्रकार अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने का निर्णय करने के बाद महाराणा प्रताप ने बड़े आत्मविश्वास के साथ भावी संघर्ष की तैयारी करनी शुरू कर दी। जब महाराणा प्रताप ने अकबर के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग चुना तो उसने भी प्रताप के आस्तत्व को समाप्त करने का निश्चय किया; क्योंकि मेवाड़ व सिरोही के अलावा अन्य राजपूत शासकों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।
अकबर द्वारा प्रताप को समझाने का प्रयास – अकबर को प्रताप के विचारों की जानकारी था। फिर भी उसने शस्त्र बल का प्रयोग करने से पहले उसको समझाने का प्रयास किया ताकि बना रक्तपात के वह सम्पर्ण राजस्थान पर अपनी सर्वोच्चता स्थापित कर सके। प्रताप के राज्याभिषेक के चार महीने के बाद अपने विश्वस्त एवं राजनीतिक वार्ताओं में दक्ष अमीर जलाल | का प्रताप के पास भेजा, परन्तु जलाल खाँ अपने मिशन में सफल नहीं हो सका। इसलिए अप्रैल, 1573 ई. में आमेर के राजकुमार मानसिंह को उदयपुर भेजा। मानसिंह ने 13 जाकर महाराणा प्रताप को समझाया कि वह अकबर की अधीनता स्वीकार कर ले। परन्तु प्रताप को यह मंजूर नहीं था।
राजस्थान के वीर रस प्रधान साहित्य में दोनों की इस भेंट को अलगचित्रित किया गया है। अमर काव्य वंशावली’, ‘राज-रत्नाकर’ आदि रचनाओं में कहा प्रताप ने मानसिंह के सम्मान में उदयसागर पर एक भोज का आयोजन किया. परन्तर भाग न लेकर अपने पुत्र अमरसिंह को भेज दिया। मानसिंह ने इसे अपना घोर अपमान वह बिना खाना खाये उठ खड़ा हुआ और क्रोधित होकर युद्ध की धमकी दी। इस पर प्रत्युत्तर में कहा कि वह अकेला आये अथवा अपने फूफा अकबर के साथ,यद्धभमिका स्वागत किया जायेगा। इस प्रकार मानसिंह भी महाराणा प्रताप को समझाने में असफल रहा।
मानसिंह के बाद अकबर ने राजनीतिक राजदूत की हैसियत से राजा भगवन्तता राणा प्रताप के पास भेजा.परन्तु वह भी अपने राजनीतिक मिशन में असफल रहा। अब ने लिखा है कि राणा ने इस बार अमरसिंह को शाही दरबार में भेजकर क्षमायाचना की डॉ. आशीर्वादी लाल.डॉ.रघुवीरसिंह ने उसके इस कथन को स्वीकार कर लिया.परन्त विचार साक्ष्य के अभाव में यह मानना उचित नहीं है।
राणा प्रताप द्वारा युद्ध की तैयारी – अधीनता स्वीकार करने से इन्कार करने के पश्चात महाराणा प्रताप ने सर्वप्रथम मेवाड़ की आन्तरिक अवस्था को ठीक करने का कार्य किया। उसके जगह-जगह जाकर जनसाधारण से सम्पर्क स्थापित किया और मुगलों के भयंकर संकट से अवगत कराया। राणा प्रताप ने मेवाड़ की सैन्य व्यवस्था तथा युद्ध-प्रणाली को भी मोड दिया। उसने स्थान-स्थान पर सैनिक चौकियाँ बिठा दीं,गुप्तचरों को सक्रिय कर दिया।
राणा प्रताप के विरुद्ध अकबर का अभियान – राणा प्रताप को अपने अधीन करने और उससे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिए अकबर ने राणा प्रताप के पास चार राजदूत भेजे। अबुलफजल के अनुसार, “सभी राजदूतों का प्रतापसिंह ने सम्मान किया।” परन्तु राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। परिणामतः अकबर व प्रताप में विरोध बढ़ता चला गया और सशस्त्र युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई।
अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य संघर्ष के कारण
(1) महाराणा प्रताप की मुगल विरोधी नीति – अकबर एक शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी सम्राट था। वह सम्पूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। यद्यपि राजपूताना के अधिकांश राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी और आमर, बीकानेर जोधपुर जैसलमेर आदि के राजघरानों ने अकबर के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे, परन्तु महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार करने अथवा मुगलों से वार सम्बन्ध स्थापित करने के लिए तैयार नहीं था। उसने शुरू से ही मुगल-साम्राज्य विराधार अपनाई और मेवाड राज्य की स्वतन्त्रता के लिए यद्ध की तैयारी में जट गया। डॉ. जी. एन. – का कथन है.”अकबर को चित्तौड- विजय के पश्चात राजस्थान के कई शासकों से मंत्रास स्थापित करने में सफलता मिल चकी थी; परन्त मेवाड का इस सम्बन्ध में सहयोग नही चुभ रहा था।”
कबर एक महत्त्वाकांक्षी तथा पराक्रमा
(2) अकबर की साम्राज्यवादी आकांक्षा – अकबर एक महत्त्वाकाक्षा सम्राट था। उसके पास एक विशाल सेना और विपल साधन थे जिनके बल पर पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। यद्यपि वह राजपूत-नरशा’ स्थापित करना चाहता था परन्तु वह स्वतन्त्रता-प्रेमी राजपूतों का दमन करन का मेवाड़ का स्वतन्त्र राज्य बना रहना मुगलों के लिए एक बड़ी चुनौती थी। अतः ११ प्रताप की स्वतन्त्र सत्ता को कुचल देना चाहता था।
(3) महाराणा प्रताप का स्वाती समर्थक – वह किसी भी कीमत लिए तैयार नहीं था। वह मेवाड की कर्तव्य मानता था। राणा प्रताप का स्वातन्त्र्य-प्रेम-राणा प्रताप मेवाड़ राज्य की स्वतन्त्रता का प्रबल किसी भी कीमत पर मुगलों की अधीनता मानने या आत्म-समर्पण करने के था। वह मेवाड़ की मान-मर्यादा तथा स्वाधीनता की रक्षा करना अपना मेवाड राज्य की स्वाधीनता को बनाये रखने के लिए कटिबद्ध था।
अकबर के कटनीतिक प्रयासों की विफलता – अकबर ने कूटनीतिक प्रयासों से गया पाप को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। अकबर के आदेश पर मानसिंह जून,1573 में पहुंचा और राणा प्रताप से भेंट की। मानसिंह ने राणा प्रताप को समझाया कि वह अकबरधीनता स्वीकार कर ले, परन्तु राणा प्रताप ने मानसिंह के प्रस्ताव को नम्रतापूर्वक ठकरा दिया। इसके पश्चात् राजा भगवानदास तथा राजा टोडरमल को भी मेवाड़ भेजा गया परन्त राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने तथा शाही-दरबार में उपस्थित होने से इनकार कर दिया। अत: अकबर ने सैन्य शक्ति के बल पर राणा प्रताप का दमन करने का निश्चय कर लिया।
हल्दीघाटी का युद्ध
अकबर ने राणा प्रताप की शक्ति का दमन करने के लिए मानसिंह के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी । मानसिंह 3 अप्रैल,1576 को अजमेर से रवाना हुआ और माण्डलगढ़,मोही आदि से गुजरता हुआ खमनौर के पास पहुंचा और जून, 1576 में वहाँ पड़ाव डाल दिया। राणा प्रताप भी एक सेना लेकर आगे बढ़ा और 17 जून, 1576 को हल्दीघाटी से 8 मील पश्चिम में लोहसिंह नामक गाँव में अपना पड़ाव डाल दिया। डॉ.ए.एल.श्रीवास्तव के अनुसार मुगल सेना में केवल 5 हजार सैनिक थे। परन्तु नैणसी का कहना है कि मुगल सेना में 40 हजार सैनिक थे। डॉ.जी.एन.शर्मा के अनुसार प्रताप की सेना में 3,000 घोड़े,2,000 पैदल, 100 हाथी आदि थे। डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार दोनों पक्षों में युद्ध 21 जून, 1576 को आरम्भ हुआ। युद्ध प्रारम्भ होते ही राणा ने मुगलों पर इतना भीषण प्रहार किया कि मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा। राणा प्रताप ने मानसिंह के निकट पहुँचकर उस पर भाले से प्रहार किया परन्तु मानसिंह ने हौदे में झुककर इस वार को असफल कर दिया। इस संघर्ष के मध्य राणा प्रताप के घोड़े चेतक की एक टाँग टूट गई और मुगल सैनिकों ने राणा को चारों ओर से घेर लिया। परन्तु उसके स्वामिभक्त सेवक राणा को सुरक्षित युद्धक्षेत्र से बाहर ले गए। इस अवसर पर झाला सरदार बीदा ने राणा प्रताप के राजकीय चिह्न धारण कर मुगलों का मुकाबला किया, जिससे राणा पर मुगलों का दबाव कम पड़ गया और राणा प्रताप हल्दी घाटी के दर्रे में से होकर गोगुन्दा की ओर चला गया। अबुलफजल तथा निजामुद्दीन अहमद के अनुसार हल्दी घाटी के युद्ध में शाही सेना के केवल 150 सैनिक तथा राणा प्रताप के 500 सैनिक मारे गये। परन्तु डॉ. आर. पी. त्रिपाठी का कथन है कि “दोनों ओर की मत्य संख्या बराबर रही, प्रत्येक ओर के लगभग 500 सैनिक युद्ध में मारे गये।”
युद्ध का महत्त्व
हल्दीघाटी के युद्ध का भारत के इतिहास में अत्यधिक महत्त्व है। हालांकि हल्दीघाटी का यद एक जाता है । युद्ध में अकबर की विजय अवश्य हुई पर युद्ध एक दिन ही लड़ा गया तथापि वह भारत के महत्त्वपूर्ण युद्धों में माना अकबर का विजय अवश्य हई पर वह राणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करने कर सका। कर्नल टॉड का कथन है, “अरावली पर्वत पर कोई ऐसी घाटी नहीं पुनीत न हो गई हो। वहाँ पर या तो उसे यशस्वी विजय प्राप्त हुई या उसकी कीर्तिपूर्ण हार हुई। हल्दीघाटी मेवाड की थर्मोपोली है।” डॉ. रघुवीर सिंह लिखते हैं कि कयुद्ध में परास्त होने के उपरान्त भी प्रताप के गौरव व कीर्ति में कोई कमी नहीं आई उधनप्रताप की कीर्ति को अधिक समज्ज्वल बना दिया।
हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् राणा प्रताप द्वारा स्वातन्त्र्य युद्ध जारी रखना – हल्ली युद्ध में पराजित होने के बाद भी राणा प्रताप हतोत्साहित नहीं हुए और वह अगले दस मुगल सम्राट अकबर की सेना से निरन्तर टक्कर लेते रहे । मानसिंह के चले जाने के बाद प्रताप ने गोगन्दा पर अधिकार कर लिया। अतः अकबर ने भगवानदास,मानसिंह आदि के प्रदेशों में लटमार करने के लिए भेजा और अकबर स्वयं अजमेर से चल कर गोगटार रवाना हआ। परन्तु अकबर के भरसक प्रयत्न करने पर भी राणा का पता नहीं लग सका। अकबर 17 नवम्बर. 1576 को उदयपुर होता हुआ बासवाड़ा चला गया। इसके शाहबाजखों को प्रताप का दमन करने के लिए भेजा गया परन्तु उसे विशेष सफलता नहीं
” 1580 में अब्दुर्रहीम खानखाना को राणा प्रताप का दमन करने के लिए भेजा गया पाना कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। राणा प्रताप के पुत्र ने शेरपुर नामक स्थान पर परिवार को बन्दी बना लिया। 1583 में प्रताप ने कुम्भलगढ़ पर अधिकार कर लिया। राणा ने शीघ्र ही अपने खोए हुए प्रदेशों पर पुनः अधिकार करना शुरू कर दिया। उसने गोगला उदयपुर,पिण्डवाड़ा आदि पर पुनः अधिकार कर लिया। उसने मुगलों के आधिपत्य से 66 स्थानों को मुक्त करवाया। 19 जनवरी,1597 को राणा प्रताप का देहान्त हो गया। 1585 में राणा प्रताप ने चावण्ड को अपनी राजधानी बना लिया था। यहाँ रहते हुए 1597 ई. तक वे निरन्तर यद्ध करते रहे । सिवाय चित्तौड़ के बहुत कुछ अपना खोया राज्य प्राप्त कर लिया था। परन्तु इसके लिए उन्हें निरन्तर मुगलों से घोर संघर्ष करना पड़ा। कभी चैन से महल में विश्राम नहीं किया। अपने मेवाड़ की स्वतन्त्रता के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। उस सिंह को चाहे घास की रोटी खानी पड़ी हो, परन्तु अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता उन्हें सदा प्यारी रही। आज भी यदि राणा प्रताप भारतवासियों द्वारा प्रातःस्मरणीय माने जाते हैं तो केवल उनके स्वातन्त्र्य-प्रेम व अपनी मातृ-भूमि की रक्षा हेतु लड़े गये युद्धों के कारण ही माने जाते हैं।
राणा प्रताप का मूल्यांकन
राणा प्रताप एक महान योद्धा और स्वतन्त्रता सेनानी था। उसने अपने पराक्रमपूर्ण कार्यों, उच्च आदर्शों, त्याग और बलिदान से राजस्थान के इतिहास में अपना उच्च स्थान बना लिया। उसने अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अनेक कठिनाइयों सहन की तथापि उसने स्वतन्त्रता के उच्च आदर्शों को नहीं छोड़ा।
डॉ. गोपीनाथ शर्मा का कथन है कि “राणा प्रताप ने लगभग 25 वर्ष तक भारतीय राजनैतिक रंगमंच पर महत्त्वपूर्ण भाग लिया और अपनी अधिकांश प्रजा के मत का ना किया। उसने शौर्य,उदारता और अच्छे गुणों से जन-समुदाय की श्रद्धा प्राप्त कर ली। . डॉ. ओझा के अनुसार, “प्रातःस्मरणीय हिन्दूपति वीरशिरोमणी महाराणा प्रताप का राजपताना के इतिहास में सबसे अधिक महत्त्वपर्ण और गौरवपर्ण है। वह स्वदशानिया स्वतन्त्रता का पुजारी,रण-कुशल,नीतिज्ञ,सच्चा वीर और उदार क्षत्रिय था ।
सतीशचन्द्र मित्रा का कथन है कि “राणा प्रताप के व्यक्तित्व में देशभक्ति का साहस और शूरवीरता के दर्शन होते हैं । प्रताप के चरित्र में वीरता से भी अधिक 3 महत्त्वपूर्ण थी। देशभक्ति उसके चरित्र की धरी थी। राजपताना का केवल मेवाड़ हा तक कि भारत भी, अपितु कोई भी युग में प्रताप जैसे वीरों पर गर्व कर सकता है।