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राजस्थान में पशुधन के विकास की समस्याएँ -इसके समाधान के सुझाव

पशु-सम्पदा की दृष्टि से राजस्थान भारत का एक प्रमुख एवं सम्पन्न राज्य है। वहाँ भारत के कुल पशुधन का लगभग 11.2% भाग है । जहाँ 1951 में राजस्थान में पशुओं की कुल संख्या 255 लाख के लगभग थी,वह 1997 की पशुगणना के अनुसार 546.7 लाख हो गई। 2003 की पशु संगणना के अनुसार राज्य में पशुओं की संख्या 491.4 लाख आँकी गई है। इस प्रकार 1997-2003 की अवधि में पशुओं की संख्या में 55.1 लाख की कमी हुई। पशुपालन कृषि के सहायक उद्योग के रूप में न केवल कृषकों को पूर्ण रोजगार में मदद करता है वरन् साथ ही उन्हें सूखे एवं प्राकृतिक विपदाओं के समय पशुपालन से आय अर्जित कर जीवनयापन का अवसर प्रदान करता है।

राजस्थान में पशुधन के विकास की समस्याएँ

राजस्थान में पशुपालन का महत्त्व कृषि एवं पशुपालन एक-दूसरे पर आश्रित है। राजस्थान के पश्चिमी रेगिस्तान वाले शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों के लोगों का जहाँ यह जीवनयापन का साधन है, वहीं पशुपालन उनकी उदरपूर्ति का साधन ही नहीं रोजगार का आधार और आय का स्रोत भी है। राजस्थान में पशुधन का महत्त्व निम्न तथ्यों से परिलक्षित होता है

(1) कषि का आधार – खेतों में हल चलाने व खाद की दृष्टि से भी पशुधन का विशेष महत्त्व है। राजस्थान में बैल,भैंसे,ऊँट, घोड़े, गधे,खच्चर आदि पशुओं का कृषिकार्य में हल चलाने कओं से पानी खींचने,बोझा ढोने,कृषि-उपज को इधर-उधर लाने व ले जाने,बैलगाड़ी खींचने आदि में व्यापक उपयोग होता है । राजस्थान में ऐसे लगभग 90 लाख पशु है।

(2) पशुओं से दूध की प्राप्ति – पशुओं से दूध प्राप्त होता है, जो पौष्टिक भोजन का आधार है। दुधारु पशुओं से राजस्थान को प्रतिवर्ष लगभग 93.76 लाख टन दूध मिलता है। राजस्थान से भारत के कुल दूध उत्पादन का 10% भाग प्राप्त होता है। पशुओं के दूध से दही, घी मक्खन व विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ तैयार की जाती है। इससे विभिन्न डेयरी उद्योगों की स्थापना हुई है जिसमें लाखों लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है।

(3) उपजाऊ खाद की पूर्ति – दूध के अतिरिक्त पशुओं से खाद भी प्राप्त होती है, जो कृषि की उपज बढ़ाने में सहायक है । यह खाद हमें गोबर व मल-मूत्र के रूप में प्राप्त होती है। पशुओं के गोबर से जलाने के लिए उपले भी बनाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त गोबर से गोबरगैस भी तैयार की जाती है।

(4) माँस की प्राप्ति – पशुओं से दूध व खाद के अतिरिक्त माँस भी प्राप्त होता है। हमारे देश में बहत से लोग भोजन में माँस का प्रयोग करते हैं। राजस्थान में पशुओं से बड़ी मात्रा में बकरों भेडों.सअरों तथा अन्य मवेशियों का माँस प्राप्त होता है जिनसे बड़ी मात्रा म आय प्राप्त होती है। जहाँ राजस्थान में 1973-74 में मॉस का उत्पादन 12 हजार टन था वह 2005-06 में बढ़कर 67.84 हजार टन वार्षिक हो गया। अण्डों का उत्पादन 2006-07 में 66.31 करोड़ हो गया।

(5) भेड़ों से ऊन की प्राप्ति – हमारे देश में ऊन उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत भाग राजस्थान की भेड़ों से प्राप्त होता है। 2006-07 में राज्य में ऊन का उत्पादन लगभग 151.85 लाख किलोग्राम था।

(6) चमड़ा एवं हड्डियाँ – पशु जीवित ही नहीं वरन् मरने के पश्चात् भी हमारे लिए उपयोगी हैं। पशुओं की मृत्यु के पश्चात् उनकी खाल, हड्डियाँ व नाखून भी हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं। पशुओं की खाल से खेती के लिए चरस, विभिन्न प्रकार के जूते, बैग व अन्य उपयोगी पदार्थ बनाए जाते हैं। पशुओं से प्राप्त चमड़ा कृषि व उद्योग दोनों के लिए उपयोगी है। पशुओं की हड़ियों से बटन एवं हाथीदाँत से कई कीमती गहने बनाए जाते हैं। कभी-कभी तो पशओं की खाल व हाथीदाँत से निर्मित वस्तुएँ निर्यात भी की जाती हैं, जिससे देश को आय प्राप्त होती है।

(7) रोजगार का साधन – राजस्थान के शुष्क व पश्चिम क्षेत्र के निवासियों का जीवन-यापन पशुपालन पर ही निर्भर है । पशुपालन से न केवल रोजगार ही प्राप्त होता है वरन ये कृषि व उद्योगों को पनपने में भी सहायता प्रदान करते हैं।

(8) परिवहन का साधन – राजस्थान के पश्चिमी रेगिस्तानी भाग में यातायात का प्रमुख साधन ऊँट ही है । ऊँट काफी दिन बिना पानी पिए रह सकता है तथा यह सवारी व बोझा ढोने के काम में लिया जाता है।

राजस्थान में पशुधन विकास के सरकारी प्रयास

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पशुधन के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए सरकार ने इनके विकास की ओर महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं,जो निम्नलिखित हैं

(1) पशुधन विकास पर व्यय – पशुधन पर पहली योजना में बहुत कम धन व्यय किया गया तथा द्वितीय योजना में 125 लाख, तृतीय योजना में 281 लाख.चौथी योजना में 10 करोड,पाँचवीं योजना में 13 करोड़ रु.तथा छठी योजना में 64 करोड रुपये व्यय किये गय है । आठवीं योजना में पशुधन विकास पर 85 करोड़ रु. व्यय का प्रावधान किया गया था। 1997-98 में कामधेनु योजना पर 50 लाख रु.व्यय का प्रावधान किया गया था।

(2) गौ-सम्वर्द्धन कार्यक्रमों को बढ़ावा – गाय-बैलों की नस्ल सुधार के लिए राशन 44 गौ-सम्वर्द्धन शाखाएँ खोली गई हैं। थारपारकर नस्ल के साँडों के विकास हेतु 1901 जैसलमेर जिले के चाँदन गाँव में बुल मदर फार्म स्थापित किया गया।

(3) पशु-चिकित्सा सुविधाओं में वृद्धि – पशुओं की चिकित्सा सुविधा का चिकित्सालयों की स्थापना में वृद्धि की गई है । जहाँ सन् 1950-51 में पशु-औषधालयों की संख्या 147 थी, वह बढ़कर 1960-61 तक 255 हो गई। 2004 में 13 पशु पोली क्लीनिक,175 प्रथम श्रेणी के पश अस्पताल.1260 पशु अस्पत डिस्पेन्सरियाँ व 1827 उप-केन्द्र कार्यरत थे। उप-स्वास्थ्य केन्द्रों को इस प्रकार किया गया है कि कोई भी व्यक्ति 5 से 8 किलोमीटर क्षेत्र में चिकित्सा सुविधा पा सके।

(4) पशुपालन शिक्षण एवं अनुसंधान – द्वितीय योजना के अन्तर्गत बीकानेर एवं जयपुर में एक-एक पशु-चिकित्सा महाविद्यालय की स्थापना की गई। इसके अतिरिक्त भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के अन्तर्गत बीकानेर तथा सूरतगढ़ में भेड़ अनुसंधान केन्द्र खोले गए हैं। जोधपुर में एक ऊन-भेड़ प्रशिक्षण स्कूल खोला गया है।

(5) कृत्रिम गर्भाधान केन्द्रों की स्थापना – राजस्थान में प्रथम पंचवर्षीय योजना में 9 कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र व द्वितीय पंचवर्षीय योजना में 10 गर्भाधान केन्द्रों की स्थापना की गई। इसके पश्चात् तो यह कार्यक्रम जोर पकड़ता गया तथा अब राज्य में लगभग 407 केन्द्र कृत्रिम गर्भाधान की सुविधाएँ उपलब्ध करा रहे हैं । इस कार्यक्रम से पशुओं की अच्छी नस्लें प्राप्त की जा सकती हैं। दिसम्बर, 2007 तक 9.88 लाख कृत्रिम गर्भाधान कराए गए। इसके द्वारा विदेशी नस्लों के साथ उत्तम किस्म की स्वदेशी नस्लों का उपयोग करके चयनित प्रजनन को बढ़ाया जा रहा है। राज्य में देशी गौ नस्ल विकास की 5 परियोजनाएँ कार्यरत हैं । जैसलमेर में थारपारकर नस्ल की गायों के विकास हेतु गौ-संरक्षण संस्थाओं के माध्यम से 2 करोड़ रु.की एक परियोजना क्रियान्वित की जा रही है।

(6) चारा विकास केन्द्र – राज्य में पशुओं के लिए चारा उपलब्ध करवाने का अभियान भी जोर पकड़ता जा रहा है। इसके लिए उन्नत घास के बीजों का वितरण, कुट्टी एवं भूसा के लिए विशेष फसल उगाने तथा करीब 10 हजार से अधिक हैक्टेयर भूमि में चारा विकास कार्यक्रम चलाया जा रहा है।

इसके अतिरिक्त इंदिरा गाँधी नहर क्षेत्र के मोहनगढ़ फार्म में भी चारा-बीज विकास कार्यक्रम चलाया जा रहा है । इस क्षेत्र में चारा के शंकर बीज के वितरण के मिनीकिट भी बाँटे जाते हैं।

(7) पशुपालन विभाग की स्थापना – राज्य में 1957 में पशुपालन विभाग की अलग से स्थापना की गई। इसके संचालन हेतु प्राविधिक निदेशक की नियुक्ति की गई है। यह विभाग सभी प्रकार के पशुओं की जातिगत विशेषताओं तथा उनके क्षेत्रीय वितरण की सर्वे कर,उसके अनुसार सुधार कार्यक्रम चलाता है।

(8) ग्राम आधार योजना – यह पशुपालन विभाग द्वारा प्रारम्भ की गई एक महत्त्वपूर्ण योजना है। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन के विकास द्वारा पशुपालकों को आर्थिक दृष्टि से सबल बनाना है । इसमें मुख्य रूप से प्रजनन, संतुलित पशु आहार व्यवस्था एवं चारा व्यवस्था,उचित प्रबन्ध व्यवस्था,समुचित विपणन व्यवस्था,शिक्षा तथा प्रसारण आदि पर बल दिया जाता है।

(9) गोपाल योजना – गहन पशु-प्रजनन के लिए 1990-91 में यह कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इसमें गाँव के शिक्षित युवकों (गोपाल) को क्रॉस प्रजनन के लिए कृत्रिम गर्भाधान की विधि का प्रशिक्षण दिया जाता है। गोपाल का चयन करते समय अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति या एकीकृत ग्रामीण विकास परियोजना के व्यक्तियों को प्राथमिकता दी जाती है। इनको 4 महीने का कृत्रिम गर्भाधान का प्रशिक्षण दिया जाता है तथा निःशुल्क साज-सामान उपलब्ध करवाया जाता है। इन्हें प्रशिक्षणकाल तथा बाद में भत्ता एवं प्रेरणा राशि दी जाती है। वर्तमान में राज्य के दक्षिण-पूर्वी भागों के 12 जिलों की 40 चुनी हुई पंचायत समितियों में 586 गोपाल कार्यरत हैं।

(10) कामधेनु योजना – यह योजना 1997-98 से शुरू की गई। इस योजना का उद्देश्य गौशालाओं को उन्नत नस्ल के दुधारू पशुओं के प्रजनन केन्द्र के रूप में विकसित करना है। इससे कृषि विकास केन्द्र एवं अन्य सक्षम स्वयंसेवी संगठन भी लाभ उठा सकेंगे। 1997-98 के बजट में इस योजना पर 50 लाख रुपए व्यय करने का प्रावधान रखा गया था। आगे के वर्षों में चयनित निजी पशुपालकों को भी इस योजना में सम्मिलित कर लिया जाएगा।

राजस्थान में पशुधन विकास की समस्याएँ एवं समाधान के सुझाव

यद्यपि राजस्थान सरकार ने पशुधन विकास के कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं लेकिन पशु-क्षेत्र की व्यापकता, साधनों की सीमितता तथा पशुपालकों की अज्ञानता एवं परम्परावादी दृष्टिकोण आदि के कारण उनके विकास में कई बाधाएँ आई हैं, इन बाधाओं व समस्याओं के निवारण के लिए निम्न सुझाव अपेक्षित हैं

(1) पशुओं की घटिया नस्ल – राजस्थान में कई पशु कमजोर,बीमार एवं घटिया नस्ल के हैं, और उनकी उत्पादकता संख्या की तुलना में कम है। अत: पशुओं की उत्पादकता बढ़ाने के लिए इनकी उत्तम नस्ल बनाने पर जोर देना चाहिए।

(2) पशुओं में व्याप्त बीमारियाँ – पशुओं में अनेक प्रकार की संक्रामक बीमारियाँ फैली हुई हैं अतः पशुओं को पृथक रख पाने की व्यवस्था नहीं होने के कारण परस्पर बीमारियाँ एक-दूसरे पशुओं में फैल जाती हैं। इससे उनकी आयु,नस्लं व उत्पादकता गिर जाती है।

सरकार को ऐसे संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए चेतावनी देनी चाहिए तथा ऐसे पशुओं को पृथक् रखने की व्यवस्था करनी चाहिए,जो संक्रमित बीमारी से ग्रसित हैं। साथ ही उनके लिये दवाइयाँ व चिकित्सा सेवा उपलब्ध करवानी चाहिए।

(3) पशुपालकों की अज्ञानता – राजस्थान में बहुत से पशुपालक अशिक्षित व अज्ञानी हैं। उन्हें न तो पशुओं में होने वाली बीमारी का ज्ञान है तथा न ही वे पशुओं के विकास से अधिक आय प्राप्त करने की जानकारी रखते हैं। उनकी अशिक्षा व अज्ञानता दूर करने के लिए सरकार को प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा पशुपालन सम्बन्धी आवश्यक ज्ञान,प्रदर्शनियाँ,प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।

(4) पशुपालकों की निर्धनता – पशुपालन की सबसे बड़ी समस्या पशुपालकों को निर्धनता है । इसके कारण वे पशुओं को न तो पौष्टिक आहार दे पाते हैं तथा न ही समुचित चिकित्सा-सुविधा उपलब्ध करा पाते हैं । सरकार को ऐसी स्थिति के निराकरण के लिए भरपूर चिकित्सा-सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए। साथ ही बैंकों से सस्ते ऋण उपलब्ध करान चाहिए तथा पशुओं के बीमे की व्यवस्था भी करनी चाहिए।

(5) पौष्टिक आहार व चारे की समस्या – पशुओं के लिए पौष्टिक चारे की व्यवस्थान होना भी पशुधन के विकास की सबसे बड़ी समस्या है। विगत वर्षों में अकाल के कारण वर्षा की कमी के कारण चारे की बहुत कमी हो गई जिससे बहुत से पश चारे के अभाव में का का ग्रास बन गए।

अतः सरकार को कुछ क्षेत्रों में केवल चारा उगाने की व्यवस्था करनी चाहिए। पशुधन की क्षति होने से बचाया जा सके।

(6) अनार्थिक पशुओं की समस्या – पशपालकों का पशओं से इतना लगाव कि वे उनके अनार्थिक होने पर भी उनका भार उठाते हैं। यहाँ तक देखने में आया है कि से दुधारू पशु जितना खाते हैं उतना ही दूध नहीं देते.

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